- वर्तमान बाजारवाद व्यवस्था में महिलाओं की गिरती 'अपनी अस्मिता' पर लेखिका ने दु:खी मन से चिंता व्यक्त की
"चाचा, अब खूब सारी लड़कियाँ आपसे लिपटकर इत्ती सारी किस्सी लेंगी" सूरज को डियो डालते देखकर छह साल की रिया ने अपने नन्हें-नन्हें हाथ फैलाते हुए कहा तो वह हँस पड़ा "यह क्या कह रही है बेटू... ऐसे कहाँ देखा?" सूरज ने पूछा तो उसने टेलीविजन की तरफ इशारा किया "इस पर दिखाते हैं ना..." सुनकर मुझे कुछ दिन पहले की बात याद आ गई, जब बाई पोंछा लगा रही थी और उससे बाल्टी का पानी गिर गया ..तब रिया ने कहा था कि "आँटी, इसके ऊपर व्हिस्पर डाल दो ,फिर देखना वो सारा पानी सोख लेगा! " तब सब हँस पड़े थे कि बच्ची है, पर अब मुझे चिंता होने लगी कि इतनी नन्ही सी बच्ची, जिसे दुनियादारी का ज्ञान भी नही है ...बगैर मतलब जाने क्या-क्या सीख रही है ये और इसके जैसे तमाम अबोध बच्चे! यही कारण है कि अब घर के सभी सदस्य एक साथ बैठकर टेलीविजन नही देख सकते!
इन चैनलों पर इतने भद्दे-भद्दे विज्ञापन आते हैं कि उन्हें देखकर शर्मिंदगी होती है..कभी-कभी स्थिति ऐसी हो जाती है कि ना तो टीवी बंद कर सकते हैं, ना चैनेल बदल सकते हैं और ना ही कहीं उठकर जा सकते हैं, बस एक दूसरे से नज़रें चुराते हुए उस विज्ञापन के खत्म होने का इंतजार करते हैं!
लेकिन प्रश्न ये है कि क्या ऐसे फालतू विज्ञापन दिखाना औचित्यपूर्ण है? मान लेते हैं कि लोग तो अपनी चीज़ों की बिक्री के लिए विज्ञापन तो करेंगे ही.. पर शेविंग क्रीम का, लड़कों के अंडर गारमेंट्स का या जेंट्स परफ्यूम के विज्ञापन में लड़कियों का काम करना ज़रूरी है क्या? हकीकत में कभी ऐसा होता है कि लड़का अंडरवियर या बनियान पहने और लड़की उसकी ओर खिंची चली आये ? शेविंग की हुई चिकनी दाढ़ी देखकर कोई लड़की अपने को ना रोक पाये और उसे सहलाने पर मजबूर हो जाए? या परफ्यूम की खुशबू सूंघकर उससे लिपटने पर मजबूर हो जाए? ऐसे वाहियात और अश्लील दृश्य देखकर हमारी नयी पीढ़ी क्या सीखेगी, उसे कैसे संस्कार मिलेंगे? सोचकर ही डर लगता है।
इसी तरह बाइक का एक ऐसा बेतुका विज्ञापन है जिसमें सुपर स्पीड से बाइक चलाने वाले लड़कों पर मोहित होकर लड़की अपने माता-पिता से कहती है कि वह अमुक लड़के से इसलिए शादी करेगी, क्योंकि वह बाइक तेज़ चलाता है और माँ बाप मंद मंद मुस्करा देते हैं!
साँवली रंगत वालों को हेय दृष्टि से देखना, उससे प्रेम ना करना या उसकी शादी ना होना..क्योकि उसकी रंगत साँवली या काली है...फेयरनेस क्रीम के विज्ञापन में यही दिखाया जाता है कि साँवले लड़के की ओर कोई लड़की आकृष्ट नहीं होती, पर जब हीन भावना से ग्रस्त होकर उसी साँवले लड़के ने गोरे होने की क्रीम लगाई तो एक नही, दो नहीं बल्कि तमाम लड़कियाँ उस पर लट्टू होकर आगे पीछे नाचने लगीं। क्या शादी करने के लिए गोरा रंग ही सब कुछ है ? उसकी काबिलियत, नौकरी चाकरी कोई मायने नही रखती? ये समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?
ऐसे ही स्कूटर के एक विज्ञापन में लड़की नन्ही सी स्कर्ट पहनकर ऐसे स्कूटर चलाती है कि उसकी पूरी पैंटी ही दिखाई देने लगती है! सोचने वाली बात है कि क्या कोई भी इज्ज़तदार माँ-बाप अपनी बेटी को ऐसे कपड़ों में बाहर भेज सकते हैं, जिसमें उसकी पैंटी दिखाई देती हो?
ऐसे ही डॉलर नाम की अंडरवियर के विज्ञापन की फूहड़ता देखिए जिसमें एयरपोर्ट पर तलाशी ले रही लड़की पूछती है कि "डॉलर कहाँ है?" तो अक्षय कुमार पैंट खोलकर अपना अंडरवियर (जांघिया) दिखाते हुए बोलते हैं कि "डॉलर यहाँ है"
ऐसे एक नहीं, अनेक विज्ञापनों की भरमार है। टूथपेस्ट के विज्ञापन में टूथपेस्ट की खुशबू से लड़की का लड़के की ओर मदहोश होकर खिंचे चले आना, कार में बैठे हुए लड़के को डियो डालते देखकर उसे कामुक दृष्टि से निहारना, लड़के को चॉकलेट खाते देख लड़की का उत्तेजित होकर उसके शरीर में कहीं भी, किसी भी जगह चूमना ...और तो और परफ़्यूम के ही एक विज्ञापन ने तो मर्यादा की सारी हदें ही पार कर दी.. जिसमें एक माँ अपनी ही बेटी के ब्वॉय फ्रैंड के परफ्यूम को सूंघकर मदहोश होते हुए उससे बड़ी नज़ाकत से कहती है कि "मुझे आँटी मत कहो, नाम से पुकारो ना" हकीकत में क्या कोई भी माँ ऐसी गिरी हुई, अमर्यादित हरकतें कर सकती है?
अंडर गारर्मेंट्स, सेनेटरी पैड्स, परिवार नियोजन आदि के विज्ञापन तो इतने अश्लील होते हैं कि शर्म को भी शर्म आ जाये.. पर इसे बनाने वाले ये भी नहीं सोचते कि इस प्रकार के घटिया, फूहड़ और अश्लील विज्ञापनों से समाज और किशोर होते बच्चों पर कैसा असर पड़ता होगा? ऐसे उत्तेजक विज्ञापन उनके जीवन से खिलवाड़ ही करते हैं क्योंकि बालमन और किशोर होते बच्चे उसी को आत्मसात करते हैं जो वह अपने आसपास देखते और सुनते हैं! अगर बच्चों को सही दिशा ना मिले तो ये विज्ञापन उन्हें अपराध की दुनिया की ओर ले जाने वाले होते है। पर आजकल ज़्यादातर लोगों के लिए पैसा ही सब कुछ है क्योंकि विज्ञापन जितना अश्लील और अनोखा होगा..। किशोर होते बच्चे, युवा वर्ग उधर ही ज़्यादा आकर्षित होगा और उतना ही उनका प्रचार भी होगा एवं उतनी ही उसकी बिक्री भी होगी।
वैसे गलती लड़कियों की भी है जिन्हें सिर्फ़ वस्तु बना दिया गया है, नुमायश की वस्तु। प्रसिद्धि और पैसों की अंधी चाहत में वो ऐसी अश्लील मॉडलिंग करने के लिए घरवालों से तो विरोध कर लेती हैं ..यहाँ तक कि उनसे रिश्ते-नाते तक तोड़ लेती हैं ..पर ख़ुद को इस्तेमाल करने से वालों से विरोध तक नहीं कर पातीं। अपरिपक्व होने के कारण उन्हें अच्छे बुरे का विवेक नहीं रहता और मर्यादाओं की सीमा लांघने में वो ज़रा भी परहेज़ नहीं करती... उन्हें अंदाज़ा भी नहीं होता कि उसका क्या हश्र होगा? और जब होश आता है तो अक्सर बहुत देर हो चुकी होती है।
अंत में एक और बात...अब नारी स्वतंत्रता के मायने बदल गए हैं। वो क्या करेंगी, कैसे और किसके साथ रहेंगीं, क्या पहनेगीं, किस प्रकार का पहनेगीं... ये सब वो ख़ुद ही तय करना चाहती हैं। ठीक भी है। तय करें, अपनी मर्जी की भी करें, यह उनका अधिकार है। पर फूहड़ता और शालीनता में फ़र्क उन्हें समझना होगा। ज़रूरी नहीं है कि इंसान कम कपड़ों में ही सुंदर दिखे ...शरीर ढँककर भी लोग ख़ूबसूरत लगते हैं।
वैसे आजकल नारी स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी कहने और कुछ भी करने का फैशन सा चल पड़ा है.. मसलन कम से कम कपड़े पहनना, जब मर्ज़ी हो घूमने निकल पड़ना, किसी के भी साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहना और जब मन की बात ना हो तो सज़ा दिलवाना वगैरह वगैरह!
जिसे देखो अभिव्यक्ति की आज़ादी का झंडा लिए घूमता है, जिनके झाँसे में आकर भोली-भाली बच्चियाँ उन्हें अपना आदर्श मानने लगती हैं पर वो ये नहीं समझ पाती हैं कि उन्हीं ठेकेदारों की अपनी बहन-बेटियाँ बॉडीगार्ड के बगैर घर से बाहर नहीं निकलतीं हैं! अत: कोई भी काम करने से पहले अपने ज्ञानचक्षु पूरी तरह से खोलकर, अच्छी तरह सोच समझकर ही निर्णय लेना चाहिए वरना उसकी परिणति दु:खद ही होती है। वैसे भी हर चीज़ की एक सीमा होती है और उन सीमाओं को लाँघना हर किसी के लिए घातक होता है फिर चाहे वह लड़की हो, लड़का हो या कोई और हो।
(लेखिका: कल्पना मिश्रा, उत्तर प्रदेश राज्य के औद्योगिक शहर कानपुर की निवासी व विश्व हिन्दी संस्थान कनाडा की सदस्या हैं)