इरफान खान : बगैर लॉकडाउन तोड़े ही स्वर्ग की ओर रुखसत हुये इरफान

- इरफान खान : बगैर लॉकडाउन तोड़े ही स्वर्ग की ओर रुखसत हुये इरफान


- सोशलमीडिया पर श्रद्धांजलि अर्पित करने वालों की दिनभर बाढ़ रही


- अपने चहेते अभिनेता को भावनात्मक शब्द देकर याद करते रहे फैन


- पत्रकारों, लेखकों, साहित्यकारों और कवियों ने भी इरफान खान के साथ गुजारे लम्हे व उनकी ऐक्टिंग याद कर अपने शब्दों से अर्पित की श्रद्धांजलि


हम सभी छुटपन में बड़े-बूढ़ों से सुना करते थे- असली मर्दों की लक्षण उसकी (उनका मतलब पुरुषों से होता था) गूदेदार आँखें, गरगराती आवाज़, सिर पर घुँघराले बाल, एक लट्ठा लम्बाई, सीना तना हुआ, गदे जैसी जाँघ, खसखसी दाढ़ी, कोई बड़ा छोटा मिले तो उससे आत्मीय हो जाना, आदि-आदि कहते-कहते खुद तन जाते और कहते, अब ऐसे लोग मिलते कहाँ हैं। ठीक ऐसे ही रहे नवाब इरफान खान। अब नहीं हैं धरा पर, बीमारी से लड़ते काल के गाल में समा गये, बहुत दु:ख हुआ।
प्रख्यात अभिनेता के रूप में अमिट छाप छोड़ने वाले खान साहब के जीवन को कुछ सम्मानित पत्रकार गणों ने फेसबुक पर अपने अंत:करण से शब्दों में श्रद्धांजलि अर्पित किये हैं। स्वर्गीय इरफान खान को भगवान के श्रीचरणों में स्थान मिले ऐसी श्रद्धांजलि अर्पित है।


वर्तमान में नेहरू युवा केन्द्र से जुड़कर कार्य कर रहे श्री शतरूद्र प्रताप जी ने अपने शब्दों से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि हम कितना जानते थे ? कभी मिले भी नही थे। सबसे पहले टीवी पर देखा था तो अच्छा लगा था। बड़ी बड़ी आंखे जो बोलती थी और कहती थी यार हम तुम्हारे है और तुम्हारे लिए ही है तुमसे मेरा नाता है।
अपने जानदार अभिनय से शानदार रोल निभाने वाला एक हरदिल अज़ीज़ इंसान आज इस संसार को छोड़ चला।  
इरफान भाई आप यूँँ चले गए। अच्छा नही लगा। बहुत बुरा लगा। हमने तो आपके लिए भगवान से प्रर्थना भी किया था। हमे लगा भगवान मान गए लेकिन आज यू चले गए दिल दुखा गए। भगवान की माया भगवान ही जाने।
यह संसार आने और जाने का ही है लेकिन एक समय के बाद ही। अभी तो बहुत समय बाकी था। लेकिन भगवान की बनाये इस संसार मे सिर्फ भगवान की ही चलती है। भगवान पुण्यात्मा को अपनी शरण मे ले। यही प्रार्थना है। ॐ शांतिः।


इसी क्रम में लम्बे समय से राष्ट्रीय सहारा में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार श्री दयाशंकर राय जी ने अपने शब्द अर्पण कर कहा कि अलविदा इरफ़ान ! बहुत याद आओगे..!
इरफ़ान खान जैसे कलाकार ही यादगार होते हैं। सिर्फ इसलिए नहीं कि वे एक बेमिसाल कलाकार थे। वह तो वे थे ही और सिने जगत में ऐसे कलाकार बहुत हुए हैं और हैं भी। लेकिन इरफान जैसे कलाकार इसलिए यादगार रहते हैं कि सार्वजनिक जीवन के बहुत से ज्वलंत सवालों पर फिक्रमंद रहते हुए वे अपनी संवेदनशील और विवेकपूर्ण राय के खुले इज़हार के लिए जाने जाते हैं। और नाटकीय जीवन से इतर वास्तविक सार्वजनिक जीवन में उनकी यह भूमिका ही उन्हें अपने पेशे के उन कलाकारों से अलग करती है जो कला को सिर्फ कमाई का जरिया और इस कमाई को ही जीवन का कुल जमा मकसद मानते हैं..!
आज जब सर्वसत्तावादी निज़ाम लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने पर आमादा हो आपकी बहुत याद आएगी इरफ़ान..! आप वाक़ई याद दिलाते रहोगे इरफान कि जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं..!


पत्रकारिता जगत में चर्चित श्री शबाहत हुसैन विजेता जी ने जुबली पोस्ट डॉटकॉम में शब्द उकेकर श्रद्धांजलि दिया जो कहानी के रूप में सामने आई। इरफ़ान खान। एक अभिनेता। भीड़ से निकला भीड़ में सबसे अलग शख्स। हिन्दुस्तान के एक आम घर में आँख खोलने वाला इरफ़ान कब और कैसे हिन्दुस्तान ही नहीं दुनिया के तमाम देशों की आँख का तारा बन गया किसी को पता ही नहीं चला।


यह आदमी एक्टिंग करता नहीं था बल्कि एक्टिंग खुद उसे जीती थी।
करीब 15 साल पहले इरफ़ान खान से मुलाक़ात हुई थी। चेहरे पर अजीब किस्म की बेतरतीब दाढ़ी को देखकर मेरे मुंह से निकल गया कि कौन सा हुलिया बनाकर जी रहे हो। इरफ़ान के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। …यह रोल की डिमांड है। अगर आपको डाकू का किरदार निभाना है तो डाकू जैसा बनना पड़ता है। शूटिंग से पहले कोई नकली तरीके से संवारे इससे बेहतर है कि खुद असली तरीके से वैसे बन जाओ। वैसा ही चेहरा बना लो। उसके बारे में खूब पढ़ो और फिर किरदार में घुस जाओ।


पढ़ना-लिखना इरफ़ान के संस्कार का हिस्सा था। वह काम निबटाकर घर में घुसते थे तो उन्हें कुर्सी पर बैठने या बेड पर लेट जाने की ज़रूरत नहीं होती थी, क्योंकि ऐसा करने से जिस्म को आराम मिलता है रूह को नहीं। घर पहुंच कर वह कपड़े चेंज करते और कोई किताब उठाकर अपने बेड पर पीठ टिकाकर ज़मीन पर बैठ जाते थे। किताब पढ़ते-पढ़ते वह अपने आप रिलैक्स हो जाते थे। इस दौरान उनके बीवी-बच्चे उनसे दूर ही रहते थे।


इरफ़ान के वालिद का टायर का बिजनेस था। इस बिजनेस से घर चल जाता था लेकिन शौक पूरे नहीं होते थे। इरफ़ान क्रिकेटर बनना चाहते थे। उनका चयन सी.के. नायडू क्रिकेट टूर्नामेंट के लिए हो गया था, ज़ाहिर था कि वह फर्स्ट क्लास क्रिकेट में इंट्री कर चुके थे लेकिन क्रिकेट खिलाड़ी वाली ज़िन्दगी जीने के लिए जितने पैसों की ज़रूरत होती है वह उनके पास नहीं थी।


क्रिकेट उन्होंने मजबूरी में छोड़ा लेकिन उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि जिस राजस्थान में पैसों की कमी की वजह से उन्हें क्रिकेट छोड़ना पड़ रहा है वही राज्य एक दिन उन्हें अपना ब्रांड अम्बेसडर बनाएगा।


इरफ़ान भीड़ से निकलकर बिल्कुल अलग शख्सियत बन गए थे। दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने उनके अन्दर छुपे सोने का तपाकर कुंदन बना दिया था। एनएसडी में जाकर वह बहुत चूज़ी हो गए थे। बहुत ज्यादा काम और बहुत ज्यादा पैसों की तलाश उन्हें कभी रहती ही नहीं थी। बहुत ज्यादा पैसे उन्होंने कमाए भी नहीं लेकिन जो फ़िल्में कीं वह भले ही उँगलियों पर गिनी जा सकती हों लेकिन वह खुद उस कतार में खड़े थे जो उँगलियों पर गिने जायेंगे। उनके जैसे ढूंढना बहुत आसान नहीं होगा।


इरफ़ान खान ने इस दुनिया में सिर्फ 53 साल गुज़ारे। उसमें भी 30 साल फिल्म इंडस्ट्री को दे दिये। ज़ाहिर है कि वह फिल्म इंडस्ट्री की ही दौलत थे। आज जो दौलत लुटी है वह फिल्म इंडस्ट्री की लुटी है। रंगमंच सूना हुआ है। एनएसडी ने अपना होनहार छात्र खोया है। सुतापा सिकदर ने चाहने वाला पति और दोनों बच्चो ने एक चाहने वाला बाप खोया है।


इरफ़ान ने न सिर्फ हिन्दी सिनेमा को समृद्ध किया बल्कि ब्रिटिश और अमेरिकन फिल्मों में अभिनय करके हिन्दुस्तान के तिरंगे को पूरी दुनिया में लहरा दिया। टेलीविज़न के लिए उन्होंने ढेर सारे सीरियल किये। टेलिविज़न के ज़रिये वह घर-घर में चाहा जाने वाला चेहरा बन गए।


लोग उन्हें पान सिंह तोमर से जानते हैं। लोग उन्हें भारत एक खोज से जानते हैं। चाणक्य, चन्द्रकान्ता, सारा जहाँ हमारा। कितने नाम लिए जाएं। उनका हर रोल देखकर यही लगता था कि वह बस यही रोल जीने के लिए पैदा हुए थे। ब्रिटिश फिल्म द वैरियर के ज़रिये भी उन्होंने अपने अभिनय का लोहा मनवाया। उनके पास पुरस्कारों की भी बड़ी श्रंखला है। पद्मश्री भी उनके खाते में आया और फिल्म फेयर भी मगर पुरस्कारों की चकाचौंध कभी इरफ़ान को न घमंडी बना पाई न ही ज्यादा से ज्यादा पैसों की तरफ खींच पाई।


इरफ़ान कुछ भी जल्दी हासिल करने के चक्कर में नहीं रहते थे। किस्मत से पत्नी भी उन्हें एनएसडी पास आउट ही मिली इसलिए पत्नी की तरफ से भी उन पर बहुत जल्दी कुछ हासिल कर लेने का दबाव नहीं था। इरफ़ान चूजी थे, इरफ़ान सेलेक्टिव थे। इरफ़ान तूफानों से टकराना जानते थे। मुश्किल वक्त से निकले थे इसलिए मुश्किल घड़ियों में भी सुकून से जीना जानते थे। इरफ़ान के सफलता वाले चमकदार वरक सबको दिखते हैं लेकिन इरफ़ान का संघर्ष इरफ़ान के करीबी लोगों ने ही देखा है। यही वजह है कि मुश्किल रोल को एक झटके में वह आसान बना डालते थे। शायद यही वजह हो कि इरफ़ान की एक्टिंग में दिखावा नहीं सच्चाई नज़र आती थी और उसी सच्चाई पर हर कोई फ़िदा हो जाया करता था।


इरफ़ान रंगमंच से निकले थे। वह रंगमंच के सबसे शानदार कालेज में पढ़े थे। इरफ़ान इस देश के सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट को छोड़कर आये थे। इरफ़ान मुश्किल ज़िन्दगी को जीकर आये थे। इरफ़ान एक ऐसे घर से निकलकर आये थे जिसमें पिता टायर का बिजनेस करता था और माँ यह चाहती थी कि उनका बेटा ज़िन्दगी में कुछ सबसे अलग कर जाए।


सब कुछ अलग करने के लिए ही तो इरफ़ान ने क्रिकेट का दामन थामा था लेकिन वहां पैसा बहुत अहमियत रखता था। एमए की डिग्री भी हासिल कर ली थी लेकिन क्लर्की तो करनी नहीं थी। सबसे अलग करना था। सबसे अलग तरह से जीना था। माँ के जो ख़्वाब थे उन्हें पूरा करना था। इन्हें पूरा करने के जिद भी थी। इसी जिद की वजह से न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर जैसी बीमारी को भी हरा दिया था। उसमें मुश्किल बहुत हुई थी लेकिन जीत जाना तो फितरत का हिस्सा था। लेकिन माँ की मौत ऐसे वक्त में हुई जब लॉक डाउन था। मरने के बाद भी माँ के पास पहुँच पाना आसान नहीं था। यह नामुमकिन था मगर वाह रे इरफ़ान इस नामुमकिन को भी मुमकिन बना दिया। अपने पैरों से चलकर अस्पताल गए और अस्पताल से उस गाड़ी पर सवार हो गए जो सीधे माँ के पास ले जाती है। माँ 95 की थीं और इरफ़ान 53 के मगर इससे क्या। लॉक डाउन पूरे देश में था मगर इससे क्या। घर में बीवी बच्चे इंतज़ार करेंगे इससे क्या। दुनिया में लाखों करोड़ों चाहने वाले आंसू बहाएंगे उससे भी क्या। लॉक डाउन का नियम भी नहीं तोड़ा और माँ के पास भी चले गए। इरफ़ान तुम्हारा जाना तुम्हारा आसान फैसला हुआ करे लेकिन तुम्हारी यह अदा पसंद नहीं आयी।


उत्तर प्रदेश में स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार श्री नवेद शिकोह जी ने शब्दों से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुये कहा कि चंद्रकांता ने उनका परिचय कराया था। देवकीनंदन खत्री के इस रहस्यमयी उपन्यास और नीरजा गुलेरी के निर्देशन में इस युवा साक्षात्कार के अभिनय का कुछ ऐसा जादू चला कि टीवी फिक्शन की दुनिया में इरफान छा गये। इसके बाद बॉलीवुड और हॉलीवुड की फिल्मों के ज़रिये भारत का नाम रौशन करने वाली इस शख्सियत ने तीन दशक तक पीछे मुड़ कर नहीं देखा। थियेटर के बारीक अभिनय की दुनिया से ताल्लुक रखने वाले इरफान भी जानते थे कि थियेटर किरदार की ड्यूरेशन और लेंथ पर विश्वास नहीं रखता।


जिन्दगी हो रंगमंच या कैमरे के सामने का किरदार हो, जब तक वजूद रहे वज़नदार और दमदार होना चाहिए है। जिन्दगी हो या अभिनेता का चरित्र, जब तक सामने रहो तब तक छाये रहो। उबाउ होने से बेहतर है एक्जिट मार लो। दुनिया-ए-फानी में इरफान की इतनी ही एंट्री थी। जिंदगी का कम वक्फे का किरदार लम्बे वक्त तक आपके अभिनय के किरदारों को जिंदा रखेगा। ख़िराजे अक़ीदत।


पूर्व में राष्ट्रीय सहारा से जुड़े रहे स्वतंत्र पत्रकार कुमार पियूष ने भी सोशलमीडिया पर विनम्रतापूर्वक शब्दों से श्रद्धांजलि अर्पित कर कहा कि कैंसर के बीहड़ का बागी इरफ़ान। जब से इरफ़ान खान के कैंसर से पीड़ित होने की खबर सुनी थी तब से मन सशंकित था...किसी अनहोनी का...फिर लंदन से कामयाब इलाज के बाद लौटने से आशंका निर्मूल सिद्ध हुई...जी खुश हो गया...कि अपनी कैंसर सर्वाइवर की लिस्ट में एक नाम और बढ़ा...उनके अभिनय का मुरीद तो था ही...उनकी जिजीविषा का भी हो गया...उन्हें कैंसर का जो टाइप था,वह बहुत खतरनाक था न्यूरोइंडोक्राइन... उसमें भी स्मॉल सेल न्यूरोइंडोक्राइन...जिसका सर्वाइवल रेट मात्र पांच फीसदी है...लार्जसेल न्यूरोइंडोक्राइन कैंसर का सर्वाइवल रेट इससे थोड़ा ज्यादा है...


मैं खुद कैंसर सर्वाइवर हूं तो मैं समझ सकता हूं कि वे किस पीड़ा से गुजर होंगे...कितनी मुश्किलों से इस पर विजय मिली होगी...डॉक्टरों ने तो बीमारी से लड़ता है किंतु मरीज कई स्तरों पर कैंसर से लड़ता है...उसकी मानसिक मजबूती बड़ा अहम रोल अदा करती है...2012-13 में मुझे भी जब कैंसर डिटेक्ट हुआ था तो दो तरह के सेल्स थे एक नॉन हॉचकिन लिम्फोमा (एनएचएल) व स्मॉलसेल न्यूरोइंडोक्राइन....डॉक्टरों के हाथ-पांव फूल गये थे...। हम लोग तो कैंसर के नाम से हिम्मत हार चुके थे...किंतु डॉक्टर, दोस्तों, परिवार, सहयोगियों और ईश्वर में आस्था ने नैय्या पार लगायी। इस न्यूरोइंडोक्राइन कैंसर ने इरफ़ान से अजब सा साम्य बना दिया था मेरा। उसकी हर खबर मैं बहुत ध्यान से पढ़ता। जब वह ठीक होकर आ गया तो मुझे लगा मानो मैंने ही फिर कैंसर पर विजय पा ली, किंतु आज इरफ़ान के निधन की खबर ने उदास कर दिया।


शानदार अभिनेता तो थे ही पान सिंह तोमर, लंचबॉक्स, मकबूल, मदारी जैसी तमाम फिल्मी किरदार सामने हैं, किंतु मैं शैदाई हूं। बीहड़ में बागी पान सिंह तोमर की तरह कैंसर के बीहड़ से पार पाने वाले फाइटर इरफ़ान का और लंचबॉक्स के नाजुक प्रेम किरदार को जीने वाले क्लर्क का भी। शायद मकबूल के हिंसक प्रेमी का भी किंतु बागियों की किस्मत गोली तो लिखी ही होती है। इस बागी की किस्मत में कैंसर को गोली लिखी थी। पर जब तक जिया तब तक जीने की कला सिखाता रहा। जाओ मियां। स्वर्ग में अम्मी का आंचल तुम्हारा इंतज़ार कर रहा इरफ़ान....। अलविदा इरफ़ान...विनम्र श्रद्धांजलि।(फोटो सोशलमीडिया)