- बिहार-भोजपुर (आरा) के बाबू कुँवर सिंह जी के शौर्य और पराक्रम से इतिहासकारों ने छल किया
- रविवार को लोगों ने घरों में दीप जलाकर पुण्यतिथि मनाई
- भारत-माता के वीर सपूतों में से एक बाबू कुँवर सिंह का जन्म बिहार के भोजपुर (आरा) के जगदीशपुर गाँव में हुआ था
- शौर्य और पराक्रम बाबू कुँवर सिंह जी को उत्तराधिकार में मिला था
- स्वाधीनता के लिए उनका समर्पण भाव जीवन भर अंगेज़ों के विरुद्ध रणभेरी बजाने को प्रेरित करता रहा
- वर्ष 1777 में जन्मे बाबू कुँवर सिंह 80 वर्ष की आयु में 1857 की क्रांति के अग्रणी नायक रहे और कई युद्ध लड़े
- 23 अप्रैल 1858 को कुँवर सिंह ने जगदीशपुर के पास अपने जीवन की अंतिम लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों को खदेड़ 200 से ज़्यादा शत्रु सैनिकों का संहार किया
- उस दिन बुरी तरह घायल होने पर भी जगदीशपुर किले से अंग्रेजों का "यूनियन जैक" का झंडा उतार कर ही दम लिया
मित्रों आज 26 अप्रैल रविवार को बाबू कुँवर सिंह जी की पुण्यतिथि है। घर पर ही दीप प्रज्वलित कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। बहुत से भाईयों को कुँवर सिंह जी के बारे में और उनके बलिदान के बारे में जानकारी ही नहीं है। अतः जिन भाइयों को जानकारी नही है वो अवश्य पढ़ें और ज्यादा से ज्यादा शेयर करें जिससे इतिहास में गुमनाम हो चुके अमर स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोग जान सकें।
17वीं सदी आते-आते भारतवर्ष के अधिकतर हिस्से पर फिरंगी अपना अधिकार जमा चुके थे। हिन्दू और मुसलमान शासक छोटी-छोटी रियासतों तक सीमित हो गए थे, उनमें से अधिकांश ने अंग्रेजों का स्वामित्व स्वीकार कर लिया था। इसी के साथ अंग्रेजों के अत्याचार भी बढ़ते जा रहे थे किन्तु कुछ क्षत्रिय राजवंश अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वो किसी भी मूल्य पर माँ भारती को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराना चाहते थे।
भारत माता के इन्हीं वीर सपूतों में से एक थे बाबू कुँवर सिंह। बाबू कुँवर सिंह का जन्म बिहार के भोजपुर (आरा) के जगदीशपुर ग्राम में भोज राजवंश में हुआ था। शौर्य और पराक्रम तो बाबू कुँवर सिंह जी को उत्तराधिकार में मिला था और उस पर स्वाधीनता के लिए उनका समर्पण भाव। जीवन भर अंगेज़ों के विरुद्ध रणभेरी बजाने को प्रेरित करता रहा।
वर्ष 1777 में जन्मे बाबू कुँवर सिंह 80 वर्ष की आयु में 1857 की क्रांति के अग्रणी नायक रहे। उन्होंने अपने जीवन काल में कई युद्ध लड़े। किन्तु 23 अप्रैल 1858 को, कुँवर सिंह ने जगदीशपुर के पास अपने जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी के भाड़े के सैनिकों को इन्होंने पूरी तरह खदेड़ दिया और 200 से ज़्यादा शत्रु सैनिकों का संहार किया। उस दिन बुरी तरह घायल होने पर भी इस बहादुर ने जगदीशपुर किले से अंग्रेजों का "यूनियन जैक" नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया। वहाँ से अपने किले में लौटने के बाद घायल कुँवर सिंह ने 26 अप्रैल 1858 को वीरगति प्राप्त की।
बाबू कुँवर सिंह हम भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। बिहार के आरा ज़िले में अपने पुरखों के त्याग व बलिदान को याद रखने वालों के सहयोग से मुख्य चौराहे पर बाबू कुँवर सिंह जी की विशाल मूर्ति उस स्थान को पवित्र तीर्थस्थल में परिवर्तित कर देती है।
यूं तो आरा एक छोटा ज़िला है, उत्तर प्रदेश और बिहार वासी इससे परिचित हैं, किन्तु जब कोई अनजान व्यक्ति पूछता है कि आरा कहाँ है तो आरा के रहने वाले गर्व से कहते हैं कि मैं उस धरती का रहने वाला हूँ जिसने महान पराक्रमी क्रांतिकारी और महानायक कुँवर सिंह को जन्म दिया। मित्रों बाबू कुँवर सिंह की अमर कथा को शब्दों में समेटना सरल नहीं, लिखूंगा तो लिखता चला जाऊंगा।
बस इतना समझ लीजिए कि बाबू कुँवर सिंह जी के साथ इतिहासकारों ने पूरा न्याय नहीं किया बल्कि तुष्टिकरण नीति के तहत उन्हें भुला दिया। आज उनके विषय में वृहद जानकारी सुलभ नहीं, किन्तु महानायकों का शौर्य पराक्रम छुपाया नहीं जा सकता। बाबू कुँवर सिंह जी की वीरगाथा अमर है और अमर रहेगी। (लेखक : बृजेश कुमार सिंह लखनऊ खण्ड निर्वाचन क्षेत्र से सदस्य विधान परिषद (स्नातक) के प्रत्याशी हैं 9838000355)