- भारत-निंदक सैंडर्स का हटना, रण छोड़ गये
सीनेटर बर्नी सैंडर्स, मशहूर भारत-निंदक, रण छोड़ गए। अमरीका के 46वें कराष्ट्रपति निर्वाचन में बिना दौड़े आज अपनी पराजय स्वीकारी। अब डेमोक्रेटिक पार्टी के एकमात्र प्रत्याशी जोई बिडेन वर्तमान डोनाल्ड ट्रम्प को चुनौती देंगे। सात माह बाद मतदान है। बिडेन उपराष्ट्रपति थे, जब बराक ओबामा राष्ट्रपति रहे। अब ट्रम्प को पटकनी देने के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रयास अनवरत है कि मिशेल ओबामा को जोई बिडेन को उपराष्ट्रपति का प्रत्याशी नामित करे। अश्वेत वोटों के दबाव से तराजू के पलड़े झुक जाते हैं। चार साल पूर्व एक बिल्डर लाबी का व्यापारी डोनाल्ड जॉन ट्रम्प अप्रत्याशित रूप से चुनाव जीता केवल इसीलिए कि ट्रम्प ने श्वेत वोटरों को उलाहना की थी। वे सब घर पर आराम करते रहे और अश्वेतों के वोट से ओबामा जीत गए थे। अब माजरा बदल गया। आलोचकों और विरोध के बावजूद ट्रम्प ने अत्यंत सुदृढ़ प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन को 2017 में हरा दिया था।
बर्नी सैंडर्स के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका में श्रमजीवी वर्ग, युवजन, नारी समुदाय और निम्नमध्यम वर्ग वाले को गत माह तक डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थिति बेहतर लगी थी। सैंडर्स अपने को लोकतान्त्रिक समाजवादी बताते हैं। उनका जनहितकारी कार्यक्रम भी बहुत लुभावना था। सभी को स्वास्थ्य और निशुल्क चिकित्सा लाभ का वादा था। वंचितों को शिक्षा मुफ्त थी। मगर सभी अभियान भ्रूण की अवस्था में रह गए। गर्भपात जैसा हो गया, जब सैंडर्स ने गत सप्ताह अपना नाम वापसी घोषित कर दी। हालाँकि सैंडर्स का समाजवादी समाज वाले अभियान से ज्यादा दिलचस्प होता कि (78 वर्षीय) सैंडर्स पहले यहूदी राष्ट्रपति होते। जॉन कैनेडी प्रथम रोमन कैथोलिक धर्म के राष्ट्रपति थे। यूं तो अमरीका यहूदी इजराइल का श्रेष्ठतम मित्र है, पर आम इसाई वोटर यहूदी से दूरी रखता है। सैंडर्स के साथ दूसरी बाधा है कि उनसे प्रभावित जनसमूह में वे लोग अधिक हैं जो मतदाता नहीं हैं। मसलन विदेशी घुसपैठिये, छात्रवर्ग, आयातित श्रमिक वर्ग आदि। इस बार कोरोना विषाणु भी खास मसला है। अभी तक ट्रूम्प के विरोधी इसे मुद्दा नहीं बना पाए। और चीन पर ट्रम्प के लगातार हमलों से ट्रम्प पर अक्षमता का दोषारोपण चिपक नहीं रहा है।
सैंडर्स के नामांकन की खबर से भारत में असहजता काफी हो गयी थी। खान मोहम्मद इमरान खान से अपनी भेंट पर सैंडर्स ने कश्मीर के मसले पर भारत पर काफी तीव्र हमला किया था। इस्लामाबाद में हुई इस निंदा की गूँज 600 किलोमीटर दूर नई दिल्ली में भी तेजी से प्रतिध्वनित हुई थी। मोदी सरकार द्वारा धारा 370 को निरस्त करना, राज्य के दर्जे से सिकोड़कर घाटी और जम्मू को केवल केंद्र शासित प्रदेश बना डालना, लद्दाख को स्वायत्त बना देना आदि गत 07 दशक के वे दु:खती रगें थीं जिन्हें सैंडर्स ने फिर दबाया और इस्लामी पाकिस्तान से अपना अनुराग दर्शाया। इसी कारण से जब सैंडर्स ने राष्ट्रपति निर्वाचन से अपना प्रस्ताव वापस ले लिया तो भारतीय राजनयिकों को सुकून मिलना स्वाभाविक था।
यूं भी अमरीकी राष्ट्रपति और रूस का प्रधान मंत्री कौन है, कैसा है और दृष्टिकोण कैसा रहेगा? इसी पर भारत की विदेश नीति बड़े पैमाने पर निर्भर करती है। सोवियत संघ के विखंडन के बाद से पूर्वी गुट से भारत का रिश्ता कुछ उदासीन जैसा हुआ है। हालाँकि व्लादिमीर पुतिन फिर भी भारत के पुराने साथी रहे हैं। अमरीका में जब भी रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति रहे पाकिस्तान भारत पर बीस पड़ता रहा। पहली बार डोनाल्ड ट्रम्प के आने से अमरीका-भारत रिश्ते काफी मधुर हुए हैं। इसका श्रेय केवल नरेंद्र मोदी को जाता है। मोदी को अमरीका वीजा जॉर्ज बुश के राष्ट्रपति काल में अस्वीकार कर दिया गया था। आज उन्हीं के रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रम्प मोदी के भुजाबद्ध सुहृद हैं। उनकी गांधीनगर (गुजरात) यात्रा कई मायनों में ऐतिहासिक तथा कीर्तिमान रचने वाली थी।
स्वतंत्रता के तुरंत बाद प्रत्येक अमरीकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा एक महती घटना बनती रही है। ताजा तो डोनाल्ड ट्रम्प की रही। मगर सर्वप्रथम थी दिसंबर 1969 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध के महानायक जनरल डी.डी. आइजनहोवर ने दिल्ली की यात्रा की थी। हिटलर और टोजो (जापानी तानाशाह) को हराने वाले आइजनहोवर के प्रति आम भारतीय का आकर्षण सहज और गहरा था। उनकी यात्रा पर अमरीकी राष्ट्रपति चाहते थे कि तिब्बत पर कम्युनिस्ट चीन का साम्राज्यवादी कब्ज़ा मुख्य विषय हो, पर उस दौर में नेहरू “भारत-चीनी भाई-भाई” के नशे में डूबे थे। जब थमा तो चीन ने लद्दाख, अरुणाचल और पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर के टुकड़े को हथिया लिया था। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में भारत की सदस्यता पर भी वार्ता टल ही गयी। इतना नेहरू ने कहा जरूर कि “जनरल आइजनहोवर मेरे दिल के टुकड़े को ले गया।”
आइजनहोवर के साथ उपराष्ट्रपति रहे रिचर्ड निक्सन भी दो बार भारत आये थे। अगस्त 1969 में एक दिन के लिए और पूर्व में 1953 में भी। पर निक्सन भारत, विशेषकर प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी से रिश्तों में ऊष्मा नदारद थी। तभी बांग्लादेश मुक्ति का मसला भी सफलता पूर्वक हल हो गया। निक्सन ने अपने मित्र पाकिस्तानी राष्ट्रपति मार्शल आगा मोहम्मद याह्या खान की मदद में अमरीका के युद्धपोत नंबर 7 को रवाना कर दिया। यह आणविक हथियार से लैस था। तब तक मार्शल सैम मानेक शॉ ने पाकिस्तान तोड़ा दिया था। ढाका आजाद हो गया था। खिन्न निक्सन ने इंदिरा गाँधी को “बूढ़ी डायन” कहा था। वाइट हाउस टेप में निक्सन की टिप्पणी दर्ज है। निक्सन समझते थे कि इंदिरा गाँधी सोवियत गुट में शामिल हो गई हैं। हालाँकि इसके पूर्व चीन द्वारा सीमा पर आक्रमण (अक्टूबर 1962) पर नेहरू ने राष्ट्रपति कैनेडी से एक दिन में दो दो पत्र लिखकर सैनिक मदद मांगी थी।
अमरीका से मधुरतम रिश्ते रहे जब जिमी कार्टर राष्ट्रपति के रूप में यात्रा पर 1978 में आये थे। कार्टर की माता श्रीमती रोजलीन दिल्ली के निकटवर्ती ग्राम में सेविका का कार्य करने आयीं थीं। आज इसका नाम कार्टरपूरी है। तब मोरारजी देसाई जनता पार्टी के प्रधानमंत्री थे।
बिल क्लिंटन की मार्च 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान मंत्री काल में अत्यधिक सफल रही। दो दशकों के अन्तराल में किसी अमरीकी राष्ट्रपति की यह पहली भारत यात्रा थी। रोनाल्ड रीगन तथा जॉर्ज बुश कभी नहीं आये। उन्हें रूचि भी नहीं थी। क्लिंटन से अधिक उनकी पत्नी हिलेरी ही जनप्रिय थीं| वे अकेले भी भारत आयीं। वस्तुतः जब वे 4 वर्ष पूर्व ट्रम्प से पराजित हुई थीं तो कई भारतीय बड़े ग़मगीन हुए थे।
जॉर्ज बुश (कनिष्ठ) की मार्च 2006 की भारत यात्रा से पुराने नाते हरे हो उठे। राष्ट्रपति बुश ने प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह का रेखाचित्र भी बनाया था। उसका कारण भी रहा कि पहली बार भारत और अमरीका में आणविक संधि पर हस्ताक्षर हुए थे।
बराक ओबामा और उनकी पत्नी की दोनों यात्रा (2010 तथा 2015 में) संबंधों को सुधारने में सहायक थे। तभी मुंबई में कसाब का हमला हुआ था। इसमें 166 लोग मारे गए थे। ओबामा दम्पति इसी ताज होटल में बाद में ठहरे थे। जब 2015 के गणतंत्र दिवस पर ओबामा मुख्य अतिथि बनकर आये थे तो नरेंद्र मोदी का नारा था, “चले साथ, साथ।” अब ट्रम्प के साथ मोदी ऐसा ही साथ चाहते हैं।
(लेखक : के. विक्रम राव जी जानेमाने पत्रकार हैं 9415000909
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