विश्लेषण : वायु खराब होने से लखनऊ के लोगों का जीवनकाल घट रहा

- वायु गुणवत्ता खराब होने से लखनऊ के लोगों का जीवनकाल घट रहा


- वायु प्रदूषण अब तक कोई राजनीतिक मुद्दा क्यों नहीं बन रहा है : डा. मिश्र


- प्रदूषित हवा गरीब-अमीर और जाति-बिरादरी जैसे सामाजिक आधार पर लोगों के साथ भेदभाव नहीं करती


- सीड और एपिक के कॉन्फ्रेंस में शहर में एयर क्वालिटी और स्वास्थ्य स्तर पर परिचर्चा


लखनऊ, टेलिस्कोप टुडे संवाददाता। सेंटर फॉर एन्वॉयरोंमेंट एंड एनर्जी डेवलपमेंट (सीड) ने एपिक के साथ मिल कर राजधानी में एक कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया, जिसका मकसद वायु प्रदूषण के मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहे दुष्प्रभावों पर परिचर्चा कर समाधान निकालना था। इस कॉन्फ्रेंस में किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज, वी.वी. गिरि नेशनल इंस्टीट्युट समेत स्वास्थ्य, पर्यावरण, सिविल सोसायटी, अकादमिक जगत और गणमान्य बुद्धिजीवियों की उपस्थिति रही। बैठक में निष्कर्ष के रूप में राज्य सरकार से अपील की गई कि सरकार वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों के संदर्भ में जमीनी स्तर पर सुधार के लिए अनिवार्य स्तर पर ठोस कदम उठाए।


पिछले कई दिनों से उत्तर भारत के गंगा मैदानी इलाकों की तरह लखनऊ की वायु गुणवत्ता बेहद खराब होने के कारण सुखिर्यों में रही है। आम नागरिकों, सिविल सोसायटी संगठनों तथा नीति-निर्माताओं को वायु प्रदूषण की वर्तमान दशा और दिशा से अवगत कराने, लोगों एवं समुदायों पर इसके दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक करने और पार्टिकुलेट पॉल्यूशन (सूक्ष्म तत्वों और धूलकणों से होने वाला वायु प्रदूषण) को कम करने वाली नीतियों के लाभ बताने के लिए एपिक ने वायु प्रदूषण संबंधी मापदंड विकसित किया है, जिसे 'वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक' के नाम से जाना जाता है। यह सूचकांक यह बताता है कि स्वच्छ और सुरक्षित हवा में सांस लेने से लोगों की उम्र कितनी बढ़ सकती है और गंभीर वायु प्रदूषण का 'जीवन प्रत्याशा' पर क्या प्रभाव पड़ता है। इस कॉन्फ्रेंस में शहर के डॉक्टर्स, पत्रकार, सिविल सोसायटी संगठनों के प्रतिनिधि और छात्रों ने भागीदारी की, जिन्हें 'एक्यूएलआई' से संबंधित जानकारी तथा लखनऊ की आबोहवा में वायु प्रदूषण से संबंधित अन्य चुनौतियों के बारे में जानकारी मिली।


'एक्यूएलआई' अनुभवजन्य शोधों पर आधारित है और यह लोगों को न केवल यह जानने-समझने का अवसर देता है कि उनके समुदाय में किस स्तर तक वायु प्रदूषण है, बल्कि यह भी कि अगर वे विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों तथा राष्ट्रीय मानकों का अनुकरण करते हैं, तो कितना लंबा जीवन जी सकते हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में 'पार्टिकुलेट मैटर' की सघनता को विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंड (10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर) से कम लाया जाए तो राज्य के निवासियों की जीवन प्रत्याशा करीब 8.6 वर्ष बढ़ सकती है। इस सूचकांक में देश के प्रत्येक जिले (जिसमें उत्तर प्रदेश के शहर भी शामिल हैं) से संबंधित आंकड़ों को दर्शाया गया है कि वायु प्रदूषण से संबंधित नीतियां अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों को पूरा करें तो वे किस कदर लोगों की जीवन प्रत्याशा को बढ़ा सकती हैं। यह सूचकांक वर्ष 1998 से 2016 के बीच लोगों को देश और जिला स्तर पर तुलनात्मक आंकड़ों को जानने का मौका देता है और एक तुलनात्मक विश्लेषण के जरिए वायु प्रदूषण के नुकसान को बेहतर तरीके से समझने का अवसर देता है।


किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ से जुड़े डॉ. नीरज कुमार मिश्र ने वायु प्रदूषण के मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों पर अपनी बात रखते हुए कहा कि ''जहरीली हवा में सांस लेने का स्वास्थ्य संबंधी नुकसान बहुत ज्यादा हैं। मैं खुद उन मरीजों की संख्या में निरंतर वृद्धि देख रहा हूं जो श्वास संबंधी बीमारियों की शिकायत लेकर हमारे पास आते हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि हमारे स्वास्थ्य को कई तरह से नुकसान पहुंचाने वाला वायु प्रदूषण अब तक कोई राजनीतिक मुद्दा क्यों नहीं बन रहा है।''


कुछ इसी तरह के अनुभवों के बारे में राय रखते हुए शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका में अर्थशास्त्र के मिल्टन फ्राइडमैन प्रतिष्ठित सेवा प्रोफेसर और एपिक के निदेशक डॉ माइकल ग्रीनस्टोन कहते हैं कि ''आज पूरी दुनिया भर में लोग जिस हवा में सांस ले रहे हैं, वह उनके स्वास्थ्य के लिए गंभीर जोखिम पैदा करता है। लेकिन जिस तरीके से इन जोखिमों को प्रचारित एवं प्रसारित किया जाता है, वे अक्सर अस्पष्ट और भ्रामक होते हैं, जैसे वायु में प्रदूषक तत्वों की सघनता को कई रंगों जैसे लाल, भूरा, नारंगी और हरा आदि मापदंडों में बदल कर इनके बारे में बताया जाता है। इन रंगों का लोगों के रहन-सहन से क्या अर्थ निकलता है, यह हमेशा ही अस्पष्ट रहा है। मैं और मेरे सहकर्मी शोधार्थियों ने इन्हीं कमियों और खामियों से निपटने के लिए एक्यूएलआई को तैयार किया है, जिसमें 'एल' का मतलब लाइफ या जीवन से है। यह सूचकांक 'पार्टिकुलेट एयर पॉल्यूशन' की सघनता को संभवतः अब तक उपलब्ध सबसे जरूरी मापदंड 'जीवन प्रत्याशा' में तब्दील कर वायु प्रदूषण के प्रभावों का आकलन करता है।''


वायु प्रदूषण की रोकथाम में आम लोगों की क्या सक्रिय भूमिका हो सकती है, इस बारे में वी.वी. गिरि नेशनल इंस्टीट्युट के प्रोफेसर सी.एस. वर्मा ने कहा कि ''वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य संबंधी प्रभावों को हमारे जीवन में हो रही वर्षों के नुकसान के रूप से गणना करने से स्वच्छ वायु संबंधी नागरिक आंदोलन को और मजबूत आधार देने में मदद मिलेगी। हमें अधिकाधिक लोगों को वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों को समझाने की जरूरत है, ताकि इस विषय पर सार्थक संवाद स्थापित हो सके। एक साधन के रूप में एक्यूएलआई इस बहस को और ज्यादा वस्तुपरक और मूल्यवान बनाने में योगदान देने की संभावना रखता है।''


इसी कड़ी में बिजनेस स्टैंडर्ड से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कल्हंस ने कहा कि ''समय आ गया है कि लखनऊ के लोग और नीति-नियंता यह बखूबी समझ लें कि इस संकट के समाधान के लिए हमें 'इमरजेंसी' उपाय करने की जरूरत है। चूंकि प्रदूषित हवा आर्थिक स्तर जैसे गरीब-अमीर और जाति-बिरादरी जैसे सामाजिक आधार पर लोगों के साथ भेदभाव नहीं करती, ऐसे में कोई इससे नहीं बच सकता। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम सब साथ आएं और मिल कर ठोस समाधान निकालें?''


सामूहिक रूप से वायु प्रदूषण के प्रति जागरूकता पैदा करने और ठोस कदम उठाने के मकसद से आयोजित इस बैठक में करीब 50 प्रतिभागियों ने शिरकत की, जिन्होंने सरकार से वायु प्रदूषण संबंधी ठोस नीतियां बनाने और उस पर अमल करने की मांग रखी।